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Showing posts from July, 2018

Remain Equanimous by Vipassana Teacher Mr. N. H. Parikh

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(Mr. Parikh, Vipassana Teacher, was among the first assistant teachers appointed by Goenkaji. He served Dhamma in various capacities for many years and made a significant contribution to the spread of Vipassana. He passed away peacefully at his residence in Mumbai in 2005.) At the age of forty-two, while living the life of a good householder, there arose in me a tremendous urge to pursue the path of purification of mind. This was stirred up in me as a result of a saintly person saying to me, “There can be no progress in the spiritual life without purification of the mind.” Upon hearing these words, I immediately began to search for a method by which the mind could be purified. Two friends of mine told me about Vipassana meditation as taught by Goenkaji, but at that time I was not inclined to go and try. But when another friend attended the course and within a month expressed his desire to take a second course, I thought there must be something worthwhile in it. This was primar...

स्थूल से सूक्ष्मता की ओर

सफल विपश्यी साधक चार सूक्ष्मताओं की चरमसीम सच्चाइयों का साक्षात्कार कर लेता है। चार परम सत्य का स्वयं साक्षात्कार कर कृतकृत्य हो जाता है। पहली सूक्ष्मता है काया की । कायानुपश्यना करता हुआ साधक प्रारंभ में काया के ठोसपने की अनुभूति करता है। बार-बार के अभ्यास से स्थूल से सूक्ष्मता की ओर बढ़ता है। बीधते हुए तीक्ष्ण चित्त से ऊपर से नीचे की ओर तथा नीचे से ऊपर की ओर यात्रा करते-करते स्वतः शरीर का घनत्व नष्ट होता है। फिर इसी तीक्ष्णता से समग्र शरीर-पिंड को चीरता हुआ केवल ऊपरी-ऊपरी सतही स्तर तक ही नहीं, बल्कि भीतर तक की घनसंज्ञा नष्ट कर लेता है। रूप कलाप याने शरीरगत परमाणुओं की सूक्ष्म सच्चाई तक जा पहुँचता है। जो भौतिक जगत का अंतिम सत्य है। शरीर का एक-एक कण खुल जाता है। कहीं भी संकलन, संघटन, संयोजन, संश्लेषण नहीं रह जाता। जैसे कोई बालू का गीला पिंड सूख जाय । कण-कण को बांधे रखने वाली संयोजनरूपी नमी दूर हो जाय। घनीभूत पिंड विघटित हो जाय, बिखर जाय। शरीर के बाहर-भीतर कहीं भी कोई स्थिर, शाश्वत, ध्रुव, अचल, ठोस पदार्थ है, ऐसा भ्रम नहीं रह जाय। यही रूप-स्कंध की याने भौतिक रूप की अंतिम सच्चाई तक ...

Meeting Between Shri S N Goenka and Krishnamurti

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Question. Krishnamurty did not believe in a technique or gurus. I believe you met him, did you discuss this? Answer by S. N. Goenka:   Certainly, I met him. He was a very saintly person, and I very much understood why he is against technique and why he is against gurus. Because he observed the situation all over the country where gurus just exploit the people saying "Look I am your guru and you are my disciple, you are so weak, how can you liberate yourself ? Just surrender to me and I will liberate you. I will liberate you." This is exploitation by gurus, this is against Dhamma and when you talk of technique that means you have got one object and you are just working with one object. It does not take you to the final goal. Things are changing from moment to moment you are observing, you are observing. (This is Vipassana, this is not a technique, Vipassana is not a technique, it is a process of observation.) So I discussed with him "Well in age you a...

मुक्ति का मार्ग

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जागरूकता तथा समता का विकास करके हम अपने को दुःख से मुक्त कर सकते हैं। अपनी स्वयं की सच्चाई के अज्ञान के कारण दुःख का आरंभ होता है। इस अज्ञान के अंधकार में चित्त प्रत्येक संवेदना के प्रति उसे प्रिय या अप्रिय मानकर राग-द्वेष के साथ प्रतिक्रिया करता है। ऐसी प्रत्येक प्रतिक्रिया इस समय दुःख उत्पन्न करती है और एक ऐसे घटनाक्रम को गति देती है जो भविष्य में दुःख के अतिरिक्त और कुछ नहीं लाती | कारण-कार्य की इस शृंखला को कैसे तोड़ा जा सकता है ?  किसी तरह अज्ञान में किए गए पिछले  कर्मों के कारण जीवन अस्तित्व में आया है, (नाम और रूप) का प्रवाह आरंभ हुआ है। तब क्या किसी को आत्महत्या कर लेना चाहिए? नहीं, इससे समस्या का समाधान नहीं होगा । अपनी हत्या के समय मन दुःख तथा देष से भरा होता है, बाद में जो जन्म आयगा, वह भी दुःखपूर्ण होगा, इस काम से हमें सुख नहीं मिल सकता है। जीवन का आरंभ हो गया है, अब दुःख से कोई बच नहीं सकता | तब क्या किसी को ऐंद्रिय अनुभवों के आधार अपने षडायतनों को नष्ट कर देना चाहिए? कोई अपनी आंखें निकाल सकता है, जीभ को काट सकता है, नाक और कान को नष्ट कर सकता है, पर...

अपने आपको जानें

 अपने आप को जानने के लिए पंजाब का एक मुस्लिम संत कहता हैं - अरे, संत - संत होता हैं, क्या मुस्लिम , क्या हिन्दू , क्या सिख , क्या  बौद्ध , क्या जैन ?जिसने अपने चित्त को निर्मल कर लिया , शांत कर लिया , लह संत हो गया । तो यह संत कहता हैं - हाशिम  तिण्हा रब्ब पछाता , जिण्हा अपना आप पछाता ' - जिसने अपने आपको पहचान लिया , उसने रब्ब को पहचान लिया परमात्मा को पहचान लिया । परमात्मा क्या होता हैं  ? उस निर्मल चित्त का साक्षात्कार हो जाय  ! अरे , तो क्या चाहिए ? पर कैसे हो जाय ? अपने भीतर सच्चाई को जानते हुए  । इसलिए पहला काम मन को वश मे तो करें  । मन हमारी आज्ञा के अनुसार चलें , हम मन की आज्ञा के अनुसार नहीं चहें  । मन हमारा गुलाम गुलाम हो जाय , हम मन के गुलाम नहीं रहे । इसलिए अनेक विद्याओं में से एक विपश्यना  ने यह कल्याणकारी विद्या दी की अपनी सांस के प्रति सजग होना सिखो ,  क्यों ? क्योंकि तुम्हारी सांस का तुह मन के विकारों से बहुत गहरा संबंध हैं । ध्यान करते करते अपने आप अनुभव होने लगता हैं कि कितना गहरा संबंध हैं ।      ...

विपश्यना प्रश्नोत्तर

प्रश्न:- आपने बताया है कि जब पुराने संस्कार निकलेंगे तो संवेदना पैदा करके ही निकलेंगे । ऐसा क्यों होता है? यदि यह कुदरत का कानून है तो कैसे जांचें और कैसे मानें? उत्तर:- क्योंकि संस्कार जब बनते हैं तब संवेदना के साथ ही बनते है । जिस प्रकार की संवेदना से कोई संस्कार बना है, बाहर  निकलेगा तो उसी प्रकार की संवेदना के साथ निकलेगा । एक उदाहरण से समझें - कि कोई कांटा चुभा, कांटा चुभा तो दर्द हुआ ।  अब उस कांटे को बाहर निकलना है तो सूई चुभा करके ही उसको बाहर निकलेंगे, तब भी उतना ही दर्द होगा । चुभन के वक्त जो दर्द हुआ था निकालने के वक्त भी वही दर्द होगा। इसी प्रकार संस्कार बनाते वक्त जिस प्रकार की संवेदना हुई थी, उसको निकलते वक्त उसी प्रकार की संवेदना होगी, ऐसा नियम है । प्रश्न:- आप अपने प्रवचनों में बतलाते हैं कि कर्मफल संवेदना के रूप में आता है । यह बात समझ में नहीं आई । क्योकि संवेदनाएं तो शरीर का स्वभाव हैं, कई कारणों से आ सकती हैं । तो फिर उनको पिछले कर्मो का फल क्यों मानें? क्या यह मानने की बात है ? उत्तर:- जरूरी नहीं है। सारी संवेदनाएं कर्मसंस्कारों की घोतक नही...

Questions and Answers

What is the mind? Mr. S. N. Goenka: The mind is what thinks! The entire thought process is due to the mind. It is the mind that is constantly involved in the various actions of thinking, reading and pondering over what has been read, etc. During its course of thinking, the mind may act beneficially or harmfully. If it adopts the wrong habit pattern, then it will generate feelings of ill will and animosity for others. If instead, the mind reforms itself, then although it will still have thoughts they will now be thoughts for the well being of others. If someone has shortcomings, the mind will want that person to overcome his shortcomings because now the mind knows that due to his shortcomings, that person will perform wrong actions which will make him more miserable and unhappy. So the mind will harbour thoughts of goodwill towards that person. It will want the person to refrain from doing bad deeds and thus save himself from burning in the fires of suffering. We observe that it is...

शुद्ध धर्म की शिक्षा

गुरुदेव की जिस एक बात ने मुझे उनकी ओर सर्वाधिक आकर्षित किया वह थी उनकी शुद्ध धर्म की सार्वजनीन व्याख्या। सचमुच बुद्ध ने शुद्ध धर्म ही सिखाया। सांप्रदायिकता के संकीर्ण दायरे से परे । और यही गुरुदेव की भी शिक्षण-विधि थी। इसे भिन्न-भिन्न संप्रदाय और समाज के लोग आसानी से धारण कर सकते हैं और लाभान्वित हो सकते हैं। मैंने गुरुजी में ऐसा कोई भी सांप्रदायिक भावावेश नहीं देखा, जिसके कारण कोई व्यक्ति अन्य संप्रदायवालों को अपने संप्रदाय में दीक्षित करने के लिए आतुर होता हो । वे किसी प्रकार की भी औपचारिक सांप्रदायिक दीक्षा को महत्त्व नहीं देते थे। यह सच है कि वे परंपरागत बौद्ध थे और ऐसा होने का उन्हें गर्व था। पर उनके लिए बुद्ध की शिक्षा कासार शुद्ध सार्वजनीन धर्म था, सांप्रदायिक ता नहीं। उनकी दृष्टि में बुद्ध का सच्चा अनुयायी वही है जो सद्धर्म धारण करता है। उनका लक्ष्य था लोगों को बुद्ध शासन में स्थापित करना ।याने धर्म में स्थापित करना। इसीलिए वे बार-बार समझाते थे कि बुद्ध-शासन क्या है - सब्ब पापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा । सचित्त परियोदपनं, एतं बुद्धान सासनं ॥  सभी अकुशल पाप ...