अपने आपको जानें
अपने आप को जानने के लिए पंजाब का एक मुस्लिम संत कहता हैं - अरे, संत - संत होता हैं, क्या मुस्लिम , क्या हिन्दू , क्या सिख , क्या बौद्ध , क्या जैन ?जिसने अपने चित्त को निर्मल कर लिया , शांत कर लिया , लह संत हो गया । तो यह संत कहता हैं -
हाशिम तिण्हा रब्ब पछाता , जिण्हा अपना आप पछाता '
- जिसने अपने आपको पहचान लिया , उसने रब्ब को पहचान लिया परमात्मा को पहचान लिया । परमात्मा क्या होता हैं ? उस निर्मल चित्त का साक्षात्कार हो जाय ! अरे , तो क्या चाहिए ? पर कैसे हो जाय ? अपने भीतर सच्चाई को जानते हुए । इसलिए पहला काम मन को वश मे तो करें । मन हमारी आज्ञा के अनुसार चलें , हम मन की आज्ञा के अनुसार नहीं चहें । मन हमारा गुलाम गुलाम हो जाय , हम मन के गुलाम नहीं रहे । इसलिए अनेक विद्याओं में से एक विपश्यना ने यह कल्याणकारी विद्या दी की अपनी सांस के प्रति सजग होना सिखो , क्यों ? क्योंकि तुम्हारी सांस का तुह मन के विकारों से बहुत गहरा संबंध हैं । ध्यान करते करते अपने आप अनुभव होने लगता हैं कि कितना गहरा संबंध हैं ।
जब कोई व्यक्ति विपश्यना के शिविर में आता हैं तो पहला काम यह की सांस को देखो , आती हैं जाती हैं , अपने बारे में यह सच्चाई प्रकट हुई । अपने आप को जानना है , मैं क्या हूं ? जिसको मैं - मैं - मैं किये जा रहा हूं वह क्या है । जिसको मेरा - मेरा - मेरा किये जा रहा हूं वह क्या है ? यह शरीर "मैं " हूं , "मेरा " हैं कि यह चित्त "मैं " हूं "मेरा" हैं ? या इन दोह कें परे कुछ और हैं जो "मेरा " हैं ? अनुभूति पर उतरे । पुस्तकों में लिखा है इसलिए नहीं मानना । हमारी परंपरा कहती है इसलिए नह मानना । हमारे गुरु महाराज कहते हैं इसलिए नहीं मानना । सच्चाई वह जो अनुभूति पर उतरे । तब ' हमारा ' सत्य हो गया । नहीं तो पुस्तकों का सत्य हैं गुरु महाराज का सत्य हैं ..... किसी अन्य का सत्य हैं , हमारा सत्य नहीं । और जब तक हमारा सत्य नहीं तब तक हमारा कल्याण नहीं ।
श्री सत्यनारायण गोयन्का
हाशिम तिण्हा रब्ब पछाता , जिण्हा अपना आप पछाता '
- जिसने अपने आपको पहचान लिया , उसने रब्ब को पहचान लिया परमात्मा को पहचान लिया । परमात्मा क्या होता हैं ? उस निर्मल चित्त का साक्षात्कार हो जाय ! अरे , तो क्या चाहिए ? पर कैसे हो जाय ? अपने भीतर सच्चाई को जानते हुए । इसलिए पहला काम मन को वश मे तो करें । मन हमारी आज्ञा के अनुसार चलें , हम मन की आज्ञा के अनुसार नहीं चहें । मन हमारा गुलाम गुलाम हो जाय , हम मन के गुलाम नहीं रहे । इसलिए अनेक विद्याओं में से एक विपश्यना ने यह कल्याणकारी विद्या दी की अपनी सांस के प्रति सजग होना सिखो , क्यों ? क्योंकि तुम्हारी सांस का तुह मन के विकारों से बहुत गहरा संबंध हैं । ध्यान करते करते अपने आप अनुभव होने लगता हैं कि कितना गहरा संबंध हैं ।
जब कोई व्यक्ति विपश्यना के शिविर में आता हैं तो पहला काम यह की सांस को देखो , आती हैं जाती हैं , अपने बारे में यह सच्चाई प्रकट हुई । अपने आप को जानना है , मैं क्या हूं ? जिसको मैं - मैं - मैं किये जा रहा हूं वह क्या है । जिसको मेरा - मेरा - मेरा किये जा रहा हूं वह क्या है ? यह शरीर "मैं " हूं , "मेरा " हैं कि यह चित्त "मैं " हूं "मेरा" हैं ? या इन दोह कें परे कुछ और हैं जो "मेरा " हैं ? अनुभूति पर उतरे । पुस्तकों में लिखा है इसलिए नहीं मानना । हमारी परंपरा कहती है इसलिए नह मानना । हमारे गुरु महाराज कहते हैं इसलिए नहीं मानना । सच्चाई वह जो अनुभूति पर उतरे । तब ' हमारा ' सत्य हो गया । नहीं तो पुस्तकों का सत्य हैं गुरु महाराज का सत्य हैं ..... किसी अन्य का सत्य हैं , हमारा सत्य नहीं । और जब तक हमारा सत्य नहीं तब तक हमारा कल्याण नहीं ।
श्री सत्यनारायण गोयन्का
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