मुक्ति का मार्ग

जागरूकता तथा समता का विकास करके हम अपने को दुःख से मुक्त कर सकते हैं। अपनी स्वयं की सच्चाई के अज्ञान के कारण दुःख का आरंभ होता है। इस अज्ञान के अंधकार में चित्त प्रत्येक संवेदना के प्रति उसे प्रिय या अप्रिय मानकर राग-द्वेष के साथ प्रतिक्रिया करता है। ऐसी प्रत्येक प्रतिक्रिया इस समय दुःख उत्पन्न करती है और एक ऐसे घटनाक्रम को गति देती है जो भविष्य में दुःख के अतिरिक्त और कुछ नहीं लाती | कारण-कार्य की इस शृंखला को कैसे तोड़ा जा सकता है ? 

किसी तरह अज्ञान में किए गए पिछले  कर्मों के कारण जीवन अस्तित्व में आया है, (नाम और रूप) का प्रवाह आरंभ हुआ है। तब क्या किसी को आत्महत्या कर लेना चाहिए? नहीं, इससे समस्या का समाधान नहीं होगा । अपनी हत्या के समय मन दुःख तथा देष से भरा होता है, बाद में जो जन्म आयगा, वह भी दुःखपूर्ण होगा, इस काम से हमें सुख नहीं मिल सकता है।


जीवन का आरंभ हो गया है, अब दुःख से कोई बच नहीं सकता | तब क्या किसी को ऐंद्रिय अनुभवों के आधार अपने षडायतनों को नष्ट कर देना चाहिए? कोई अपनी आंखें निकाल सकता है, जीभ को काट सकता है, नाक और कान को नष्ट कर सकता है, परंतु शरीर को कैसे नष्ट करेगा? मन को कैसे नष्ट करेगा? यह फिर आत्महत्या होगी, जो निरर्थक है। तो क्या हम षडायतनों के विषयों को, सभी रूप, शब्द आदि को नष्ट कर दें? यह संभव नहीं | असंख्य पदार्थों से परिपूर्ण है यह संसार। उन सबको कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। 

ऐंद्रिय षडायतनों की सत्ता रहते हुए उनके अपने-अपने विषयों से उनके संपर्क को रोकना असंभव है। जैसे ही संपर्क स्थापित होता है संवेदना उत्पन्न होती ही है। लेकिन हां एक ऐसा बिंदु है जिस पर शृंखला को तोड़ा जा सकता है। निर्णायक कड़ी - संवेदना का बिंदु है। प्रत्येक संवेदना राग-द्वेष उत्पन्न करती है। ये राग-द्वेष की क्षणिक अचेतन प्रतिक्रियाएं तुरंत बहुगुणित हो जाती हैं जो घनीभूत राग-द्वेष और आसक्ति के रूप में अब और भविष्य में दुःख उत्पन्न करती हैं। 

यह एक अंध स्वभाव बन जाता है जिसे हम यंत्रवत बार-बार दुहराते रहते हैं। तदपि विपश्यना भावना के अभ्यास से हम प्रत्येक संवेदना के प्रति जागरूकता का विकास करते हैं, हम समता का विकास करते हैं, प्रतिक्रिया नहीं करते । बिना प्रिय या अप्रिय माने, बिना राग, द्वेष या आसक्ति के हम संवेदना को साक्षीभाव से देखते हैं।इससे नयी प्रतिक्रियाओं को जन्म देने की बजाय, प्रत्येक संवेदना अब सिर्फ हमारी प्रज्ञा को जन्म देती है: संवेदना अनित्य है, इसका परिवर्तन होना ही है, उदय-व्यय होना ही है।

यों श्रृंखला टूट गई है, दुःख समाप्त हो गया है। अब कोई नया राग-द्वेष नहीं है, इसलिए कोई कारण नहीं जिससे दुःख उत्पन्न हो सके । दुःख का कारण कर्म है, मानसिक कर्म, अर्थात राग-द्वेष के प्रति अंध प्रतिक्रिया, अर्थात संस्कार । जब मन संवेदना को जानता है और समता में स्थित रहता है तब ऐसी प्रतिक्रिया नहीं होती है, ऐसा कारण नहीं होता है जो दुःख पैदा करे। हमने अपने लिए दुःख उत्पन्न करना बंद कर दिया है।

बुद्ध ने कहा है-
सब्बे संङ्कारा अनिच्चाति, यदा पञ्ञाय पस्सति।
अथ: निब्बिन्दति दुक्खे, एस मग्गो विसुद्धिया॥

सारे संस्कार अनित्य हैं। इस सच्चाई को जब तुम विपश्यना (प्रज्ञा) से देख-जान लेते हो तब तुमको दुःख से निर्वेद प्राप्त होता है- ऐसा है यह विशुद्धि का मार्ग ।*

यहां संखार (संस्कार) शब्द का बहुत व्यापक अर्थ है। मन की अंध प्रतिक्रिया संखार है परंतु उस प्रतिक्रिया का परिणाम, फल भी संखार है, जैसा बीज, वैसा फल। हर एक चीज जिससे जीवन में हमारा संपर्क होता है, अंततोगत्वा हमारे अपने मानसिक कर्मो का ही फल है। इसलिए व्यापक अर्थ में संखार का अर्थ है इस प्रतीत्य-समुत्पन्न संसार में जी कुछ भी उत्पन्न, रचित, संघटित है वह संखार ही है। 'सभी संस्कार अनित्य हैं”- संसार की हर चीज चाहे वह भौतिक हो या मानसिक | 

विपश्यना भावना के अभ्यास द्वारा प्राप्त भावनामयी प्रज्ञा से जब इस सत्य को कोई देखता है तो दुःख समाप्त हो जाता है क्योंकि दुःख के कारणों से वह मुँह मोड़ लेता है, राग-ढेष उत्पन्न करने की आदत को वह छोड़ देता है। यही मुक्ति का मार्ग है। सारा प्रयास यह सीखना है कि कैसे प्रतिक्रिया न करें, कैसे नया संस्कार उत्पन्न न करें। जब संवेदना प्रकट होती है, राग-द्वेष शुरू हो जाता है। यदि हम असावधान है तो यह क्षणिक पल दुबारा आता है, राग और देष बन जाता है, प्रबल प्रवृत्ति बन जाती है और अंततः हमारे चेतन मन को अभिभूत कर देती है। हम इससे आक्रांत हो जाते हैं और ठीक से निर्णय करने की हमारी शक्ति ही गायब हो जाती है। परिणाम यह होता है कि हम अपने को अकुशल वाचिक और  कर्म करते हुए पाते हैं जिनसे दूसरों की और अपनी हानि होती है। एक क्षण की अंध प्रतिक्रिया के कारण हम अपने लिए जिस दुःख की सृष्टि करते हैं, उससे अभी और भविष्य में भी दुःखी होते रहते हैं।

 परंतु यदि हम उस बिंदु के प्रति जागरूक हैं, जहां प्रतिक्रिया की प्रक्रिया आरंभ होती है (अर्थात्‌ यदि हम संवेदना के प्रति जागरूक है) तो न तो हम कोई प्रतिक्रिया करेंगे और न उसे घनीभूत होने देंगे। जब हम बिना किसी प्रतिक्रिया के, बिना राग-द्वेष के, संवेदना को देख सकते हैं तब संवेदना का राग-द्वेष अथवा प्रबल प्रवृत्ति में, जी हमें अभिभूत कर दे, विकसित होने की कोई संभावना नहीं रहती | इसका मात्र उदय-व्यय होता है। चित्त संतुलित, शांत बना रहता है। अब हम सुखी हैं और भविष्य में सुख की प्रत्याशा कर सकते हैं क्योंकि हमने प्रतिक्रिया नहीं की है।

प्रतिक्रिया न करने की यह क्षमता बहुत मूल्यवान है। जब हम शरीर की संवेदना के प्रति जागरूक हैं और उस समय समता भी बनाए रखते हैं, उस क्षण मन संस्कार-मुक्त रहता है। संभवत: प्रारंभ में यह केवल क्षणिक हो सकता है और शेष समय संवेदनाओं, राग, देष और दुःख के पुराने चक्र की प्रतिक्रिया की पुरानी आदत में निमग्न रहता है। परंतु निरंतर अभ्यास से ये कतिपय संक्षिप्त क्षण, सेकेंड और मिनट बन जायेंगे । अंततः प्रतिक्रिया की पुरानी आदत नष्ट हो जाती है और चित्त निरंतर शांत बना रहता है। इसी प्रकार संपूर्ण दुःख का निरोध किया जा सकता है। इस तरह हम अपने लिए दुःख उत्पन्न करना बंद कर सकते हैं।

जीवन जीने की कला (अध्याय 7 )

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