शुद्ध धर्म की शिक्षा
गुरुदेव की जिस एक बात ने मुझे उनकी ओर सर्वाधिक आकर्षित किया वह थी उनकी शुद्ध धर्म की सार्वजनीन व्याख्या। सचमुच बुद्ध ने शुद्ध धर्म ही सिखाया। सांप्रदायिकता के संकीर्ण दायरे से परे । और यही गुरुदेव की भी शिक्षण-विधि थी। इसे भिन्न-भिन्न संप्रदाय और समाज के लोग आसानी से धारण कर सकते हैं और लाभान्वित हो सकते हैं। मैंने गुरुजी में ऐसा कोई भी सांप्रदायिक भावावेश नहीं देखा, जिसके कारण कोई व्यक्ति अन्य संप्रदायवालों को अपने संप्रदाय में दीक्षित करने के लिए आतुर होता हो । वे किसी प्रकार की भी औपचारिक सांप्रदायिक दीक्षा को महत्त्व नहीं देते थे।
यह सच है कि वे परंपरागत बौद्ध थे और ऐसा होने का उन्हें गर्व था। पर उनके लिए बुद्ध की शिक्षा कासार शुद्ध सार्वजनीन धर्म था, सांप्रदायिक ता नहीं। उनकी दृष्टि में बुद्ध का सच्चा अनुयायी वही है जो सद्धर्म धारण करता है। उनका लक्ष्य था लोगों को बुद्ध शासन में स्थापित करना ।याने धर्म में स्थापित करना। इसीलिए वे बार-बार समझाते थे कि बुद्ध-शासन क्या है -
सब्ब पापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा ।
सचित्त परियोदपनं, एतं बुद्धान सासनं ॥
सभी अकुशल पाप कर्मों से विरत रहना। कुशल कर्मों में रत रहना। अपने चित्त को माजते रहना, निर्मल करते रहना -यही बुद्धों का शासन है याने शिक्षा है। सभी बुद्धों की यही शिक्षा है।
शील, समाधि और प्रज्ञा। वे लोगों को इसी में स्थापित हो सकने में मदद करते थे ताकि लोग मैल से निर्मलता, दुःख से दु:ख-विमुक्ति के सुखमय जीवन में परिवर्तित हो जांय, दीक्षित हो जांय । यूं निर्मलता में दीक्षित हो कर कोई अपने को बौद्ध कहे तो सयाजी प्रसन्न होते थे। लेकिन केवल मात्र नाम बदल लेने से किसी को क्या मिलेगा भला ? स्वभाव सुधार ले तो जीवन सुधर जाए। बस महत्त्व इसी बात को देते थे।
लोगों को सम्प्रदाय में दीक्षित करने के भावावेश में लगे हुए। अनेकों को गुरुदेव खूब खरी-खरी सुनाते थे। कहते थे, “औरों को बुद्धशासन में स्थापित करने का प्रयत्न करने के पहले स्वयं बुद्धशासन में स्थापित होना सीखो। स्वयं शील, समाधि, प्रज्ञा में स्थापित हुए बिना किसी दूसरे को शील, समाधि, प्रज्ञा में कैसे स्थापित कर पाओगे? और शील, समाधि, प्रज्ञा में स्थापित नहीं कर पाओगे तो बुद्धशासन में कैसे स्थापित कर पाओगे? केवल कोई निष्प्राण थोथी औपचारिकता पूरी करके उनक सम्प्रदाय बदलने से क्या मिलेगा?" वे बड़े दबंग शब्दों में कहा करते थे, -
“यदि तुम शील, समाधि, प्रज्ञा में स्थापित नहीं हो तो अपने आप को हजार बौद्ध कहते रहो, मेरे लिए तुम बौद्ध नहीं हो और जो शील, समाधि, प्रज्ञा में स्थापित है वह अपने आप को बौद्ध कहे या न कहे, मेरे लिए वह बौद्ध ही है। बुद्ध की शिक्षा का सच्चा अनुयायी है। यही सच्ची तातना प्यू है। याने किसी को शासन में स्थापित करना है।"
धर्म पुत्र,
स. ना. गो.
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