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मेरा प्रथम विपश्यना शिविर (कल्याणमित्र श्री सत्यनारायण गोयन्का)

शिविर आरंभ हुआ। गुरुदेव ने आनापान की साधना दी और मैं आते-जाते साँस के प्रति सजग रहने का अभ्यास करने लगा।पूर्वाह्न की साधना अच्छी हुई परंतु 11 बजे भोजनशाला में एकत्र हुए तब गुरुदेव ने एक-एक साधक को उसकी साधना के बारे में पूछा। शिविर में केवल 5-7 साधक थे। उनमें से सबने कहा कि उन्हें प्रकाश दिखा। मेरी बारी आयी। मुझे तो प्रकाश दिखा नहीं था। नाक के नीचे खुजलाहट और झुनझुनाहट की बहुत तीव्र अनुभूति हुई थी। वही बता दी। भोजनोपरांत हम सभी  ऊपर अपने-अपने निवास-कक्ष में चले आये। मेरा मन उदास होने लगा। मैं उन दिनों बहुत अहंकारी व्यक्ति था। इतनी कम उम्र में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में आशातीत सफलताएँ मिलती रहने के कारण मानस अत्यंत अहंकेन्द्रित हो गया था। इस कारण जरा-सी भी असफलता अथवा जरा-सी अनचाही घटना मेरे लिए असह्य हो उठती। दिल बैठने लगता, उदासी में डूबने लगता। अब भी यही होने लगा। ध्यान के शून्यागार में भी जाने को जी नहीं चाहे। मन पर बहुत जोर लगा कर गया तो एक-दो साँस भी नहीं देख पाया। एक क्षण भी मन नहीं टिका। शून्यागार से शीघ्र निकल कर अपने निवास- कक्ष में वापिस आ गया। कुछ देर लेटा रहा, करवटें...

उदृबोधन-पत्र

(भारत आकर बसे परिवार के अनेक शिवरोंन्मुख विपस्सी साधकों को लिखा गया एक धर्मपत्र ), रंगून, 4-2-1969) प्रिय साधक एवं साधिकायो! धर्मं धारण करो! साधना में कोई कठिनाई हुई हो तो उससे घबराना नहीं चाहिए । संस्कारों का मेल छंटने में कठिनाई तो होती ही है, फोड़े की मवाद निकलने की तरह उसे धेर्यपूर्वक सह लेने में ही साधना की सिद्धि है । यह पत्र पहुंचने तक जो शिविर में बैठे ही हों, उनके लाभार्थ विपश्यना पर कुछ कहू । यह जो सिर से पांव तक सारे शरीर में , अंग-प्नत्यंग में, तुम्हें किसी न किसी संवेदना की अनुभूति हो रहीं है और इस अनुभूति को तुम इसके अनित्य रूप में देख-पहचान रहै हो - यहीं विपश्यना है । जितनी देर इस अनित्यता का दर्शन कर रहे हो, उतनी देर सत्य के साथ हो l  सत्य बडा शक्तिशाली है । जहाँ सत्य है वहाँ विद्या का बल है, अविद्या का क्षय है । जहाँ सत्य है वहीं ज्ञान है, बोधि है, प्रकाश है, निर्वाण है । और जहाँ ये सब है वहां अज्ञानता, मूढता, अंधकार और मोह कैसे रह सकते हैं भला? राग और द्वेष कैसे रह सकत्ते है भला? और ये ही तो चित्त के मैल हैं । ये ही फोडे है, ये ही फोडे की पीप है । इनके...

विपश्यना साधना

विपश्यना साधना की विधि व अभ्यास अपने बारे में इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना समझना ही विपश्यना है विपश्यना आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की अत्यंत पुरातन साधना-विधि है। लगभग 2500 वर्ष पूर्व भगवान गौतम बुद्ध ने विलुप्त हुई इस पद्धति का पुन: अनुसंधान कर इसे सार्वजनिक रोग के सार्वजनिक इलाज, जीवन जीने की कला, के रूप में सर्वसुलभ बनाया। उसके बाद निष्ठावान आचार्यों की परंपरा ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस ध्यान-विधि को अपने अक्षुण रूप में बनाए रखा। इस परंपरा के वर्तमान आचार्य श्री सत्य नारायण गोयन्काजी, हैं तथा उनके द्वारा नियुक्त आचार्य आज पूरे विश्व में हम साधना को सिखा रहे हैं। क्या है विपश्यना? अपने बारे में इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना समझना, यही विपश्यना है। भगवान बुद्ध के समय की भारत की जनभाषा में पस्सना (पश्यना) कहते थे देखने को, यह जो खुली आंखों से सामान्य देखना होता है उसको। लेकिन विपश्यना का अर्थ है जो चीज जैसी है उसे वैसी उसके सही रूप में देखना, न कि केवल जैसा ऊपर ऊपर से प्रतीत होता ...

माँ का तोहफा

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एक दंपत्ती दिवाली की खरीदारी करने को हड़बड़ी में था! पति ने पत्नी से कहा- जल्दी करो मेरे पास" टाईम" नहीं है... कह कर रूम से बाहर निकल गया सूरज तभी बाहर लॉन मे बैठी "माँ" पर नजर पड़ी, कुछ सोचते हुए वापिस रूम में आया।....शालू तुमने माँ से भी पूछा कि उनको दिवाली पर क्या चाहिए....  शालिनी बोली नहीं पूछी। अब उनको इस उम्र मे क्या चाहिए होगी यार, दो वक्त की रोटी और दो जोड़ी कपड़े इसमे पूछने वाली क्या बात है..... वो बात नहीं है शालू... "माँ पहली बार दिवाली पर हमारे घर में रुकी हुई है" वरना तो हर बार गाँव में ही रहती है तो... औपचारिकता के लिए ही पूछ लेती......... अरे इतना ही माँ पर प्यार उमड़ रहा है तो खुद क्यूँ नही पूछ लेते झल्लाकर चीखी थी शालू, और कंधे पर हेंड बैग लटकाते हुए तेजी से बाहर निकल गयी...... सूरज माँ के पास जाकर बोला माँ हम लोग दिवाली के खरीदारी के लिए बाजार जा रहे हैं आपको कुछ चाहिए तो..  माँ बीच में ही बोल पड़ी मुझे कुछ नही चाहिए बेटा.... सोच लो माँ अगर कुछ चाहिये तो बता दीजिए.....  सूरज के बहुत जोर देने पर माँ बोली ठीक है तुम र...

The Art of Living by William Hart

"The absence of craving or aversion does not imply an attitude of callous indifference, in which one enjoys one's own liberation but gives no thought to the suffering of others. On the contrary, real equanimity is properly called "holy indifference." It is a dynamic quality, an expression of purity of mind. When freed of the habit of blind reaction the mind for the first time can take positive action, which is creative, productive, and beneficial for oneself and for all others. Along with equanimity will arise the other qualities of a pure mind: goodwill, love that seeks the benefit of others without expecting anything in return; compassion for others in their failings and sufferings; sympathetic joy in their success and good fortune. These four qualities are the inevitable outcome of the practice of Vipassana.  Previously one always tried to keep whatever was good for oneself and pass anything unwanted on to others. Now one understands that one's own ha...

ब्रह्म-विहार

मनुष्य एक अद्भुत प्राणी है। उसके स्वभाव में अच्छे, बुरे, शुभ और अशुभ दोनों का ही सम्मिश्रण है। उसमें संत की सी सात्विक निर्मलता भी है और साथ ही दानव की सी दूषित प्रवृत्ति भी। कब, कैसे, कौन सी प्रवृत्ति उभर कर उस पर हावी हो जाय - यह कहा नहीं जा सकता । इन दोनों विरोधी शक्तियों के कारण मानव एक ओर सद्गुणों का आगार हो सकता है, तो दूसरी ओर अशुभ, अकुशल और दुष्ट कार्यों को संपन्न करने में समर्थ भी। जो व्यक्ति संत बन कर जन-जन के हितकारी कार्य करके आर्य बनना चाहते हैं, वे प्रयत्नपूर्वक इन आसुरी प्रवृत्तियों से बच कर दैवी गुणों को धारण कर लेते हैं। मनुष्य पृथ्वी के अंदर गड़े हुए कीमती हीरे आदि को खोद कर निकालने में अथक शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाता है, यहां तक कि कभी अपनी जान भी गवां बैठता है परंतु अपने ही भीतर सुसुप्त दैवी शक्ति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना नहीं चाहता, जबकि इसके लिए केवल संकल्प, वीर्य और धैर्य की ही आवश्यकता है। प्रयत्नशील हो तो निर्धन से निर्धन और नितांत अपढ़ व्यक्ति तक आध्यात्मिक उंचाइयां प्राप्त कर सकता है। मानव में उसे अधोगति की ओर ले जाने वाले जो दोष हैं, उनम...

Words of Dhamma Inspiration For Old Students by Principal Teacher S.N. Goenka

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29th September was Respected Goenkaji’s third death anniversary. The entire Vipassana Family expresses its profound gratitude to him. On this occasion, come and let us offer our deepest homage as we once again read his profoundly inspirational words that will help us in our endeavour of walking on the path of Dhamma. Deepening our practice as guided by him will be our true offering to our Teacher.  January 4, 2004, Delhi Dear students!  Two things are very important for you to truly bring meditation practice (sadhana) into your lives. One point is to have learnt this practice in a Vipassana course, or to have ripened in practice over a number of Vipassana courses, along with not missing your morning and evening daily sittings once you return home. If you miss them, you will not get the desired benefit from these courses. Otherwise, these ten-days here will turn into just a mere ritual.  In the same way as you give food to the body two or three times a ...