विपश्यना साधना

विपश्यना साधना की विधि व अभ्यास

अपने बारे में इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना समझना ही विपश्यना है
विपश्यना आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की अत्यंत पुरातन साधना-विधि है। लगभग 2500 वर्ष पूर्व भगवान गौतम बुद्ध ने विलुप्त हुई इस पद्धति का पुन: अनुसंधान कर इसे सार्वजनिक रोग के सार्वजनिक इलाज, जीवन जीने की कला, के रूप में सर्वसुलभ बनाया। उसके बाद निष्ठावान आचार्यों की परंपरा ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस ध्यान-विधि को अपने अक्षुण रूप में बनाए रखा। इस परंपरा के वर्तमान आचार्य श्री सत्य नारायण गोयन्काजी, हैं तथा उनके द्वारा नियुक्त आचार्य आज पूरे विश्व में हम साधना को सिखा रहे हैं।

क्या है विपश्यना?

अपने बारे में इस क्षण का जो सत्य है, जैसा भी है उसे ठीक वैसा ही, उसके सही स्वभाव में देखना समझना, यही विपश्यना है। भगवान बुद्ध के समय की भारत की जनभाषा में पस्सना (पश्यना) कहते थे देखने को, यह जो खुली आंखों से सामान्य देखना होता है उसको। लेकिन विपश्यना का अर्थ है जो चीज जैसी है उसे वैसी उसके सही रूप में देखना, न कि केवल जैसा ऊपर ऊपर से प्रतीत होता है। भासमान सत्य के परे जाकर समग्र शरीर एवं मन के बारे में परमार्थ सत्य को जानना आवश्यक है। जब हम उस सच्चाई का अनुभव करते हैं तब हमारा अंध प्रतिक्रिया करने का स्वभाव बदल जाता है, विकारों का प्रजनन बंद होता है, और अपने आप पुराने विकारों का निर्मूलन होता है। हम दुखों से छुटकारा पाते हैं एवं सही सुख का अनुभव करने लगते हैं।

सार्वजनिक इलाज

सभी इसका अभ्यास कर सकते हैं। सभी दुखियारे हैं। इस सार्वजनिक रोग का इलाज भी सार्वजनिक होना चाहिए, सांप्रदायिक नहीं। जब कोई क्रोध से पीडि़त होता है तो वह बौद्ध क्रोध, हिंदू क्रोध या ईसाई क्रोध नहीं होता। क्रोध क्रोध है। क्रोध के कारण जो व्याकुलता आती है, उसे ईसाई, यहूदी या मुस्लिम व्याकुलता नहीं कहा जा सकता। रोग सार्वजनिक है। इलाज भी सार्वजनिक होना चाहिए।

विपश्यना ही है उपाय

विपश्यना ऐसा ही सार्वजनिक उपाय है। औरों की सुख-शांति भंग न करने वाले शील के पालन का कोई विरोध नहीं करेगा। मन को वश करने के अभ्यास का कोई विरोध नहीं करेगा। अपने बारें में सच्चाई जानने वाली प्रज्ञा का, जिससे कि मन के विकार दूर होते हैं, कोई विरोध नहीं करेगा। विपश्यना सार्वजनिक विद्या है।

विकारों से मुक्ति

एक, ऐसे शारीरिक एवं वाचिक कर्मों से विरत रहो, जिनसे औरों की सुख-शांति भंग होती हो। विकारों से मुक्ति पाने का अभ्यास हम नहीं कर सकते अगर दूसरी ओर हमारे शारीरिक एवं वाचिक कर्म ऐसे हैं जिससे विकारों का संवर्धन हो रहा हो। इसलिए, शील की आचार संहिता इस अभ्यास का पहला महत्त्वपूर्ण सोपान है। जीव-हत्या, चोरी, कामसंबंधी मिथ्याचार, असत्य भाषण एवं नशे के सेवन से विरत रहना—इन शीलों का पालन निष्ठापूर्वक करने का निर्धार करते हैं। शील पालन के कारण मन कुछ हद तक शांत हो जाता है और आगे का काम करना संभव होता है।

मन को टिकाएं सांस पर

अगला सोपान है, इस जंगली मन को एक (सांस के) आलंबन पर लगाकर वश में करना। जितना हो सके उतना समय लगातार मन को सांस पर टिकाने अभ्यास करना होता है। यह सांस की कसरत नहीं है, सांस का नियमन नहीं करते। बल्कि, नैसर्गिक सांस को देखना होता है, जैसा है वैसा, जैसे भी भीतर आ रहा हो, जैसे भी बाहर जा रहा हो। इस तरह मन और भी शांत हो जाता है और तीव्र विकारों से अभिभूत नहीं होता। साथ ही साथ, मन एकाग्र हो जाता है, तीक्ष्ण हो जाता है, प्रज्ञा के काम के लायक हो जाता है।

शील और मन को करें वश में

शील एवं मन को वश में करने के यह दो सोपान अपने आपमें आवश्यक भी हैं और लाभदायी भी। लेकिन अगर हम तीसरा कदम नहीं उठायेंगे तो विकारों का दमन मात्र होकर रह जाएगा। यह तीसरा कदम, तीसरा सोपान है- अपने बारें में सच्चाई को जानकर विकारों के निर्मूलन द्वारा मन की शुद्धता का। यह विपश्यना है—संवेदना के रूप में प्रकट होने वाले सतत परिवर्तनशील मन एवं शरीर के परस्पर संबंध को सुव्यवस्थित विधि से एवं समता के साथ देखते हुए अपने बारे में सच्चाई का अनुभव करना। यह भगवान बुद्ध की शिक्षा का चरमबिंदु है—आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि।

विपश्यना साधना शिविर

विपश्यना दस-दिवसीय आवासी शिविरों में सिखायी जाती है। शिविरार्थियों को अनुशासन संहिता, का पालन करना होता है एवं विधि को सीख कर इतना अभ्यास करना होता है जिससे कि वे लाभान्वित हो सकें।
परंपरा के अनुसार विपश्यना को सात सप्ताह के शिविरों में सिखाया जाता था। बीसवीं सदी कि शुरुआत में इस परंपरा के आचार्यों ने जीवन की मुश्किल गति को ध्यान में रखते हुए इस अवधि को कम करने के प्रयोग किए। उन्होंने पहले तीस दिन, फिर दो सप्ताह, फिर दस दिन एवं सात दिन के शिविर लगाए और देखा कि दस दिन से कम समय में मन को शांत कर शरीर एवं चित्त धारा का गहराई से अभ्यास करना संभव नहीं है।

प्रशिक्षण के तीन सोपान

शिविर में गंभीरता से काम करना होता है। प्रशिक्षण के तीन सोपान होते हैं। 
दिन की शुरुआत सुबह चार बजे जगने की घंटी से होती है और साधना रात को नौ बजे तक चलती है। दिन में लगभग दस घंटे ध्यान करना होता है लेकिन बीच में पर्याप्त अवकाश एवं विश्राम के लिए समय दिया जाता है। प्रतिदिन शाम को आचार्य गोयंकाजी का वीडियो पर प्रवचन होता है जो साधकों को दिन भर के साधना अनुभव समझने में मदत करता है। यह समय सारिणी पिछले कई दशकों से लाखों लोगों के लिए उपयुक्त एवं लाभदायी सिद्ध हुई है।

शिविर में मौन क्यों होता है?

शिविर के दौरान सभी साधक आर्य मौन यानी शरीर, वाणी एवं मन का मौन रखते हैं। वे अन्य साधकों से संपर्क नहीं करते। साधकों को अपनी जरुरतों के लिए व्यवस्थापन से एवं साधना संबंधी प्रश्नों के लिए सहायक आचार्य से बात करने की छूट होती है। पहले नौ दिन मौन का पालन करना होता है। दसवें दिन सामान्य जीवन प्रक्रिया में लौटने के लिए बात करना शुरु करते हैं। इस साधना में अभ्यास की निरंतरता ही सफलता की कुंजी है। मौन इस निरंतरता को बनाए रखने हेतु आवश्यक अंग है।

मन का व्यायाम

है। जैसे शारीरिक व्यायाम से शरीर को स्वस्थ बनाया जाता है वैसे ही विपश्यना से मन को स्वस्थ बनाया जा सकता है। निरंतर अभ्यास से ही अच्छे परिणाम आते हैं। सारी समस्याओं का समाधान दस दिन में ही हो जायेगा ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दस दिन में साधना की रूपरेखा समझ में आती है जिससे की विपश्यना जीवन में उतारने का काम शुरू हो सके। जितना-जितना अभ्यास बढ़ेगा, उतना-उतना दुखों से छुटकारा मिलता चला जाएगा और उतना उतना साधक परममुक्ति के अंतिम लक्ष्य के करीब चलता जायेगा। दस दिन में ही ऐसे अच्छे परिणाम जरूर आयेंगे जिससे जीवन में प्रत्यक्ष लाभ मिलना शुरू हो जायेगा।

सभी गंभीरतापूर्वक अनुशासन का पालन करने वाले लोगों का विपश्यना शिविर में स्वागत है, जिससे कि वे स्वयं अनुभूति के आधार साधना को परख सके एवं उससे लाभान्वित हो। जो भी गंभीरता से विपश्यना को अजमायेगा वह जीवन में सुख-शांति पाने के लिए एक प्रभावशाली तकनीक प्राप्त कर लेगा।


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