ब्रह्म-विहार

मनुष्य एक अद्भुत प्राणी है। उसके स्वभाव में अच्छे, बुरे, शुभ और अशुभ दोनों का ही सम्मिश्रण है। उसमें संत की सी सात्विक निर्मलता भी है और साथ ही दानव की सी दूषित प्रवृत्ति भी। कब, कैसे, कौन सी प्रवृत्ति उभर कर उस पर हावी हो जाय - यह कहा नहीं जा सकता । इन दोनों विरोधी शक्तियों के कारण मानव एक ओर सद्गुणों का आगार हो सकता है, तो दूसरी ओर अशुभ, अकुशल और दुष्ट कार्यों को संपन्न करने में समर्थ भी। जो व्यक्ति संत बन कर जन-जन के हितकारी कार्य करके आर्य बनना चाहते हैं, वे प्रयत्नपूर्वक इन आसुरी प्रवृत्तियों से बच कर दैवी गुणों को धारण कर लेते हैं। मनुष्य पृथ्वी के अंदर गड़े हुए कीमती हीरे आदि को खोद कर निकालने में अथक शारीरिक और मानसिक कष्ट उठाता है, यहां तक कि कभी अपनी जान भी गवां बैठता है परंतु अपने ही भीतर सुसुप्त दैवी शक्ति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना नहीं चाहता, जबकि इसके लिए केवल संकल्प, वीर्य और धैर्य की ही आवश्यकता है। प्रयत्नशील हो तो निर्धन से निर्धन और नितांत अपढ़ व्यक्ति तक आध्यात्मिक उंचाइयां प्राप्त कर सकता है।

मानव में उसे अधोगति की ओर ले जाने वाले जो दोष हैं, उनमें से क्रोध (दोस -पालि) का निरोध (उपशमन) मैत्री से होता है, हिंसा का उपशमन करुणा से, ईष्र्या का मुदिता से तथा राग और द्वेष जो मन का संतुलन बिगाड़ कर उसके सुखी जीवन को नष्ट कर देने के मुख्य कारण हैं, इनका उपशमन उपेक्षा द्वारा होता है। यों मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा - ये चार ब्रह्म-विहार हैं, जो विपश्यी साधक को उसके चरम लक्ष्य तक पहुँचा देते हैं।
ये चारों गुण ब्रह्म-विहार के नाम से जाने जाते हैं। इन चारों ब्राह्मी गुणों को धारण करने पर व्यक्ति सही माने में धर्मशील और प्रयत्नशील बन जाता है। वह इसी जीवन में ब्रह्मातुल्य बन जाने के योग्य हो जाता है। आइए, इन विशेष गुणों पर कुछ विचार-विमर्श करने का प्रयत्न करें। |
 मैत्री - (संस्कृत शब्द) पालि धर्म-शास्त्रों में ‘मेत्ता' नाम से जाना जाता है। यह शब्द अपने आप में बहुत व्यापक है। अंग्रेजी अनुवाद -(Loving kindness) प्रेममयी दया, (Goodwill) सदेच्छा, (Benevolence) परोपकारिता, (Universal love) सार्वजनिक प्यार, आदि विभिन्न शब्दों में इसे व्यक्त किया जाता है। परंतु इनमें से कोई भी शब्द उस गंभीरता और गरिमा तक नहीं पहुँच पाता, जो वस्तुतः मैत्री भावना में निहित है। | मैत्री और मित्रता (दोस्ती) में बहुत भेद है। दोस्ती या साधारण मित्रता का आरंभ जान पहिचान या परिचय से होता है। धीरे-धीरे यह परिचय कुछ घनिष्ट हो जाता है। एक दूसरे के यहां आना-जाना होने लगता है। दूर हों तो पत्राचार अथवा फोनपर भी बातचीत करके आपसी हालचाल पूछ लिया जाता है। एक दूसरे के सुख-दुख में शरीक भी होना संभव होता है। यह दोस्ती यानि मित्रता मैत्री जैसी पवित्र नहीं है। संत तुलसी ने कहा है -
जो न मित्र दुख होहि दुखारी, तिनहिं विलोक त पातक भारी।

तुलसी जी की यह मित्रता थोड़े अशों तक मैत्री के निकट तो है, फिर भी उस ऊंचाई तक नहीं पहुँच पाती ! यह तो केवल मित्र के दुख में भागी होने की भावना है यानि उस जाने-पहचाने व्यक्ति (अपने मित्र) तक ही सीमित है, जब कि मैत्री-भावना प्राणीमात्र के लिये है - जाने, अनजाने, मित्र और अमित्र सब के लिए है। यह केवल सामान्य प्रेम नहीं है। यह तो अति पवित्र, निश्छल, नि:स्वार्थ प्रेम है। साधारणतया प्यार या प्रेम में जो भावना जागृत होती है, उससे अंतत: दुख ही उत्पन्न होता है, क्योंकि उसके मूल में अपना स्वार्थ निहित होता है। अत: दुख ही होता है जब कि वह व्यक्ति या अवस्था नहीं रहती। मैत्री में ऐसा नहीं होता। जो सही मैत्री-भावना रखता है उसकी मैत्री सद्गुणी या दुर्गुणी, अपने या पराए, सब के लिए समान रूप से होती है। वह बदले में कुछ भी वांछना नहीं रखता । मैत्री-भावना वाला व्यक्ति सुख की नींद सोता है, क्योंकि वह तो अजातशत्रु हो गया है; वह सब से प्यार करता है और सब उससे प्यार ही करते हैं। वह प्राणीमात्र से, जीव-जंतु आदि सभी से प्रेम पाता है। सभी उसकी मैत्री के घेरे में आ जाते हैं। प्राचीन ऋषि-मुनियों के आश्रमों में सिंह और हिरण आदि के साथ-साथ विचरने की बात इसी मैत्रीमय वातावरण के कारण ही तो थी। भगवान गौतम बुद्ध ने भी ऐसा ही अनुभव किया कि जंगलों और पहाड़ी क्षेत्रों में निवास के समय न तो जंगली पशु उनसे डरते थे और न ही वे उनसे डरते थे।

इतना ही नहीं मैत्री-भावना वाले व्यक्ति के संपर्क में आने पर एक विशेष प्रकार की शक्ति और सुख का अनुभव होता है। उसके संपर्क से रोगियों के दुख का शमन हो जाता है। यह तथ्य है। मैत्री-भावना युक्त व्यक्ति के चेहरे पर एक विशेष आभा झलक ती रहती है और वह सदा प्रसन्न-चित्त रहता है। मृत्यु के समय भी तथा उसके बाद भी उसका चेहरा शांत ही रहता है। क्योंकि वह सुख से शरीर त्यागता है। अतः यदि उसका पुनर्जन्म हो तो वह सुखमय ही होता है।

करुणा - ब्रह्मविहारी की दूसरी उपलब्धि ‘करुणा है। किसी को कष्ट में देखक रजो भावना मन में जागृत होती है या जो संवेदना होती है वह करुणा की भावना है। किसी को दुखी देखकर मन द्रवीभूत हो जाता है और विचार उठता है कि इस बेचारे की बड़ी दयनीय दशा है; इसका यह दुख दूर हो जाय ! कैसे हो जाय ? क्या उपाय है ? उसके बाद ऐसी दया की भावना जागती है कि क्या मैं इसके दुख-निवारण में सहायक हो सकता हूं ? तब वह उसे कुछ देना चाहता है। तन, मन, धन से; जो भी बन पड़ता है वह करता है। दया करुणा का प्रतिफल है। दोनों में अन्योन्याश्रित संबंध है। दोनों ही गुण श्लाघ्य हैं; अनुकरणीय हैं। दोनों में पवित्रता इसलिए है कि इस दया के बदले कुछ अपेक्षा, मांग या शर्त नहीं लगी रहती । केवल मात्र उपकार करने का ही ध्येय रहता है।

मुदिता - ब्रह्मविहारी की तीसरी उपलब्धि ‘मुदिता' है। यह मन की उस स्थिति का अत्यंत पवित्र भाव है जिसमें किसी को सुखी देख कर मोद जागता है, ठीक वैसे ही जैसे कि किसी को दुखी देख कर करुणा जागे। यह ईष्र्या का प्रतिलोम है। किसी की उन्नति देखकर मन में जलन, ईष्र्या या द्वेष न होकर मुदित मन या प्रसन्न होना, एक विशिष्ट गुण है। साधारणतया लोग दूसरे की हानि या अवनति देखकर खुशी या संतुष्टि अनुभव करते हैं अथवा उस हानि को उसके पूर्व कर्म का फल या गल्ती का फल बता कर, हानि का होना ठीक मानते हैं। विरले ही हैं जो किसी की दुर्दशा पर दुखी या सहानुभूति अनुभव करते हैं और सुदशा पर वास्तव में प्रसन्न होते हैं। मुदितामय व्यक्ति अपने शत्रु की भी उन्नति और सुदशा पर संतोष और प्रसन्नता अनुभव करता है।

उपेक्खा (उपेक्षा) - यह ब्रह्म-विहार की सबसे कठिन उपलब्धि है। यह है समता। इसका मौलिक अर्थ अनासक्ति है, तटस्थता है। बिना राग-द्वेष, बिना लाग-लपेट के निष्पक्ष रूप से देखना है। वर्तमान हिंदी में उपेक्षा शब्द का प्रयोग इस उपेक्षा काद्योतक नहीं रहा, बल्कि उसमें परित्यक्तता का भाव छिपा हुआ है। वहां उसे उदासीनता, तिरस्कार, अनादर या ध्यान न देने के अर्थ में ही लिया गया है। वस्तुतः उपेक्खा - अन्यमनस्कता या उदासीनता नहीं है। 

                                                                                                                                 -(स० न० गोयन्का )

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